ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 26 से 30 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 26 से 30
"(श्लोक-२६)
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान् । आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ।।
अथ = उसके बाद, पार्थः पृथानन्दन अर्जुनने, तत्र = उन, उभयोः = दोनों, एव = ही, सेनयोः सेनाओंमें, स्थितान् = स्थित, पितॄन् = पिताओंको, पितामहान् = पितामहोंको, आचार्यान् = आचार्योंको, मातुलान् = मामाओंको, भ्रातॄन् भाइयोंको, पुत्रान् = पुत्रोंको, पौत्रान् = पौत्रोंको, तथा तथा, सखीन् = मित्रोंको।
व्याख्या-'तत्रापश्यत् ...... सेनयोरुभयोरपि' - जब भगवान् ने अर्जुनसे कहा कि इस रणभूमिमें इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख, तब अर्जुनकी दृष्टि दोनों सेनाओंमें स्थित अपने कुटुम्बियोंपर गयी। उन्होंने देखा कि उन सेनाओंमें युद्धके लिये अपने-अपने स्थानपर भूरिश्रवा आदि पिताके भाई खड़े हैं, जो कि मेरे लिये पिताके समान हैं। भीष्म, सोमदत्त आदि पितामह खड़े हैं। द्रोण, कृप आदि आचार्य (विद्या पढ़ानेवाले और कुलगुरु) खड़े हैं।
पुरुजित् कुन्तिभोज, शल्य, शकुनि आदि मामा खड़े हैं। भीम, दुर्योधन आदि भाई खड़े हैं। अभिमन्यु, घटोत्कच, लक्ष्मण (दुर्योधनका पुत्र) आदि मेरे और मेरे भाइयोंके पुत्र खड़े हैं। लक्ष्मण आदिके पुत्र खड़े हैं, जो कि मेरे पौत्र हैं। दुर्योधनके अश्वत्थामा आदि मित्र खड़े हैं और ऐसे ही अपने पक्षके मित्र भी खड़े हैं। "
"(श्लोक-२७)
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि । तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥
श्वशुरान् = ससुरोंको, च और, सुहृदः सुहृदोंको, अपि = भी, अपश्यत् = देखा, तान् = उन, अवस्थितान् = अपनी-अपनी जगहपर स्थित, सर्वान् = सम्पूर्ण, बन्धून् = बान्धवोंको, समीक्ष्य = देखकर, सः = वे, कौन्तेयः = कुन्तीनन्दन अर्जुन
द्रुपद, शैब्य आदि ससुर खड़े हैं। बिना किसी हेतुके अपने-अपने पक्षका हित चाहनेवाले सात्यकि, कृतवर्मा आदि सुहृद् भी खड़े हैं।
सम्बन्ध-अपने सब कुटुम्बियोंको देखनेके बाद अर्जुनने क्या किया- इसको आगेके श्लोकमें कहते हैं।
व्याख्यातान् सर्वान्बन्धूनवस्थितान् समीक्ष्य' - पूर्वश्लोकके अनुसार अर्जुन जिनको देख चुके हैं, उनके अतिरिक्त अर्जुनने बालीक आदि प्रपितामह; धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, सुरथ आदि साले; जयद्रथ आदि बहनोई तथा अन्य कई सम्बन्धियोंको दोनों सेनाओंमें स्थित देखा।
'स कौन्तेयः कृपया परयाविष्टः' इन पदोंमें 'स कौन्तेयः' कहनेका तात्पर्य है कि माता कुन्तीने जिनको युद्ध करनेके लिये सन्देश भेजा था और जिन्होंने शूरवीरतामें आकर 'मेरे साथ दो हाथ करनेवाले कौन हैं?'- ऐसे मुख्य मुख्य योद्धाओंको देखनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णको दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेकी आज्ञा दी थी, वे ही कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरतासे युक्त हो जाते हैं!
दोनों ही सेनाओंमें जन्मके और विद्याके सम्बन्धी-ही- सम्बन्धी देखनेसे अर्जुनके मनमें यह विचार आया कि युद्धमें चाहे इस पक्षके लोग मरें, चाहे उस पक्षके लोग मरें, नुकसान हमारा ही होगा, कुल तो हमारा ही नष्ट होगा, सम्बन्धी तो हमारे ही मारे जायँगे ! ऐसा विचार आनेसे अर्जुनकी युद्धकी इच्छा तो मिट गयी और भीतरमें कायरता आ गयी। इस कायरताको भगवान् ने आगे (२।२-३ में) 'कश्मलम्' तथा 'हृदयदौर्बल्यम्' कहा है, और अर्जुनने (२।७ में) 'कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः' कहकर इसको स्वीकार भी किया है।"
"(श्लोक-२८)
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥
परया अत्यन्त, कृपया = कायरतासे, आविष्टः = युक्त होकर, विषीदन् = विषाद करते हुए, इदम् = ऐसा, अब्रवीत् = बोले ।
अर्जुन कायरतासे आविष्ट हुए हैं- 'कृपयाविष्टः'। इससे सिद्ध होता है कि यह कायरता पहले नहीं थी, प्रत्युत अभी आयी है। अतः यह आगन्तुक दोष है। आगन्तुक होनेसे यह ठहरेगी नहीं। परन्तु शूरवीरता अर्जुनमें स्वाभाविक है; अतः वह तो रहेगी ही।
अत्यन्त कायरता क्या है? बिना किसी कारण निन्दा, तिरस्कार, अपमान करनेवाले, दुःख देनेवाले, वैरभाव रखने वाले, नाश करनेकी चेष्टा करनेवाले दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि आदिको अपने सामने युद्ध करनेके लिये खड़े देखकर भी उनको मारनेका विचार न होना, उनका नाश करनेका उद्योग न करना-यह अत्यन्त कायरतारूप दोष है। यहाँ अर्जुनको कायरतारूप दोषने ऐसा घेर लिया है कि जो अर्जुन आदिका अनिष्ट चाहनेवाले और समय- समयपर अनिष्ट करनेका उद्योग करनेवाले हैं, उन अधर्मियों- पापियोंपर भी अर्जुनको करुणा आ रही है (गीता-पहले अध्यायका पैंतीसवाँ और छियालीसवाँ श्लोक) और वे क्षत्रियके कर्तव्यरूप अपने धर्मसे च्युत हो रहे हैं।
'विषीदन्निदमब्रवीत्'- युद्धके परिणाममें कुटुम्बकी, कुलकी, देशकी क्या दशा होगी- इसको लेकर अर्जुन बहुत दुःखी हो रहे हैं और उस अवस्थामें वे ये वचन बोलते हैं, जिसका वर्णन आगेके श्लोकोंमें किया गया है।
अर्जुन बोले-
कृष्ण = हे कृष्ण!, युयुत्सुम् = युद्धकी इच्छावाले, इमम् = इस, स्वजनम् = कुटुम्ब-समुदायको, समुपस्थितम् = अपने सामने उपस्थित, दृष्ट्ा = देखकर, मम मेरे |
व्याख्या-'दृष्ट्रेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ' - अर्जुनको 'कृष्ण' नाम बहुत प्रिय था। यह सम्बोधन गीतामें नौ बार आया है। भगवान् श्रीकृष्णके लिये दूसरा कोई सम्बोधन इतनी बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान् को अर्जुनका 'पार्थ' नाम बहुत प्यारा था। इसलिये भगवान् और अर्जुन आपसकी बोलचालमें ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगोंमें भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टिसे संजयने गीताके अन्तमें 'कृष्ण' और 'पार्थ' नामका उल्लेख किया है- 'यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः' (१८। ७८)।
धृतराष्ट्रने पहले 'समवेता युयुत्सवः' कहा था और यहाँ अर्जुनने भी 'युयुत्सुं समुपस्थितम्' कहा है; परन्तु दोनोंकी दृष्टियोंमें बड़ा अन्तर है। धृतराष्ट्रकी दृष्टिमें तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पाण्डुके पुत्र हैं- ऐसा भेद है; अतः धृतराष्ट्रने वहाँ 'मामकाः' और 'पाण्डवाः' कहा है। परन्तु अर्जुनकी दृष्टिमें यह भेद नहीं है; अतः अर्जुनने यहाँ 'स्वजनम्' कहा है, जिसमें दोनों पक्षके लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रको तो युद्धमें अपने पुत्रोंके मरनेकी आशंकासे भय है, शोक है; परन्तु अर्जुनको दोनों ओरके कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे शोक हो रहा है कि किसी भी तरफका कोई भी मरे, पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी।
अबतक 'दृष्ट्वा' पद तीन बार आया है- 'दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम्' (१। २), 'व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्' (१। २०) और यहाँ 'दृष्ट्वेमं स्वजनम्' (१। २८)। इन तीनोंका तात्पर्य है कि दुर्योधनका देखना तो एक तरहका ही रहा अर्थात् दुर्योधनका तो युद्धका ही एक भाव रहा; परन्तु अर्जुनका देखना दो तरहका हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देखकर वीरतामें आकर युद्धके लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनोंको देखकर कायरतासे आविष्ट हो रहे हैं, युद्धसे उपरत हो रहे हैं और उनके हाथसे धनुष गिर रहा है।"
"(श्लोक-२९)
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति । वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥
गात्राणि = अंग, सीदन्ति = शिथिल हो रहे हैं, च = और, मुखम् मुख, परिशुष्यति = सूख रहा है, च = तथा, मे = मेरे, शरीरे शरीरमें, वेपथुः = कँपकँपी (आ रही है), च = एवं, रोमहर्षः रोंगटे खड़े, जायते = हो रहे हैं,
'सीदन्ति मम गात्राणि..... भ्रमतीव च मे मनः' - अर्जुनके मनमें युद्धके भावी परिणामको लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःखका असर अर्जुनके सारे शरीरपर पड़ रहा है। उसी असरको अर्जुन स्पष्ट शब्दोंमें कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अंग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है, जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीरके सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमांचिंत हो रहा है!"
"""(श्लोक-३०)
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते । न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।॥
हस्तात् = हाथसे, गाण्डीवम् = गाण्डीव धनुष, संसते = गिर रहा है, च = और, त्वक् त्वचा, एव भी, परिदह्यते जल रही है, मे = मेरा, मनः मन, भ्रमति, इव भ्रमित-सा हो रहा है, च = और (मैं), अवस्थातुम् = खड़े रहनेमें, च = भी, न, शक्नोमि = असमर्थ हो रहा हूँ।""
जिस गाण्डीव धनुषकी प्रत्यंचाकी टंकारसे शत्रु भयभीत हो जाते हैं, वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है! त्वचामें- सारे शरीरमें जलन हो रही है *।
* चिन्ता चितासमा ह्युक्ता बिन्दुमात्रं विशेषतः । सजीवं दहते चिन्ता निर्जीवं दहते चिता ॥
""चिन्ताको चिताके समान कहा गया है, केवल एक बिन्दुकी ही अधिकता है। चिन्ता जीवित पुरुषको जलाती है और चिता मरे हुए पुरुषको जलाती है।'
मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरेको क्या करना चाहिये- यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्धभूमिमें रथपर खड़े रहनेमें भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूच्छित होकर गिर पडूंगा ! ऐसे अनर्थकारक युद्धमें खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है।
सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें अपने शरीरके शोकजनित आठ चिह्नोंका वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणामके सूचक शकुनोंकी दृष्टिसे युद्ध करनेका अनौचित्य बताते हैं।"""
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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