ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 23 से 25 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge


 

श्री हरि


"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""


भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 23 से 25

"(श्लोक-२३) 

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः । धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥


दुर्बुद्धेः = दुष्टबुद्धि, धार्तराष्ट्रस्य दुर्योधनका, युद्धे = युद्धमें, प्रियचिकीर्षवः = प्रिय करनेकी इच्छावाले, ये जो, एते ये राजालोग, अत्र इस सेनामें, समागताः आये हुए हैं, योत्स्यमानान् = युद्ध करनेको उतावले हुए (इन सबको), अहम् = मैं, अवेक्षे = देख लूँ।


व्याख्या' धार्तराष्ट्रस्य * दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ' - यहाँ दुर्योधनको दुष्टबुद्धि कहकर अर्जुन यह बताना चाहते हैं कि इस दुर्योधनने हमारा नाश करनेके लिये आजतक कई तरहके षड्यन्त्र रचे हैं।


* 'धार्तराष्ट्र' पदके दो अर्थ होते हैं- (१) धृतराष्ट्रके पुत्र अथवा सम्बन्धी (२) अन्यायपूर्वक राष्ट्र (राज्य) को धारण करनेवाले। यहाँ धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनके लिये ही 'धार्तराष्ट्रस्य' पद आया है।


हमें अपमानित करनेके लिये कई तरहके उद्योग किये हैं। नियमके अनुसार और न्यायपूर्वक हम आधे राज्यके अधिकारी हैं, पर उसको भी यह हड़पना चाहता है, देना नहीं चाहता। ऐसी तो इसकी दुष्टबुद्धि है; और यहाँ आये हुए राजालोग युद्धमें इसका प्रिय करना चाहते हैं! वास्तवमें तो मित्रोंका यह कर्तव्य होता है कि वे ऐसा काम करें, ऐसी बात बतायें, जिससे अपने मित्रका लोक- परलोकमें हित हो। परन्तु ये राजालोग दुर्योधनकी दुष्टबुद्धिको शुद्ध न करके उलटे उसको बढ़ाना चाहते हैं और दुर्योधनसे युद्ध कराकर, युद्धमें उसकी सहायता करके उसका पतन ही करना चाहते हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधनका हित किस बातमें है; उसको राज्य भी किस बातसे मिलेगा और उसका परलोक भी किस बातसे सुधरेगा-इन बातोंका वे विचार ही नहीं कर रहे हैं। अगर ये राजालोग उसको यह सलाह देते कि भाई, कम-से-कम आधा राज्य तुम रखो और पाण्डवोंका आधा राज्य पाण्डवोंको दे दो तो इससे दुर्योधनका आधा राज्य भी रहता और उसका परलोक भी सुधरता।


'योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः'- इन युद्धके लिये उतावले होनेवालोंको जरा देख तो लूँ ! इन्होंने अधर्मका, अन्यायका पक्ष लिया है, इसलिये ये हमारे सामने टिक नहीं सकेंगे, नष्ट हो जायँगे।


'योत्स्यमानान्' कहनेका तात्पर्य है कि इनके मनमें युद्धकी ज्यादा आ रही है; अतः देखूँ तो सही कि ये हैं कौन ?


सम्बन्ध-अर्जुनके ऐसा कहनेपर भगवान् ने क्या किया- इसको संजय आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं।"

  "सञ्जय उवाच


(श्लोक-२४)


एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ।।


संजय बोले -


भारत = हे भरतवंशी राजन् !, गुडाकेशेन = निद्राविजयी अर्जुनके द्वारा, एवम् = इस तरह, उक्तः = कहनेपर, हृषीकेशः = अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने, उभयोः दोनों, सेनयोः सेनाओंके, मध्ये = मध्यभागमें, रथोत्तमम् = श्रेष्ठ रथको, स्थापयित्वा = खड़ा करके

 

व्याख्या 'गुडाकेशेन'- 'गुडाकेश' शब्दके दो अर्थ होते हैं - (१) 'गुडा' नाम मुड़े हुएका है और 'केश' नाम बालोंका है। जिसके सिरके बाल मुड़े हुए अर्थात् घुँघराले हैं, उसका नाम 'गुडाकेश' है। (२) 'गुडाका' नाम निद्राका है और 'ईश' नाम स्वामीका है। जो निद्राका स्वामी है अर्थात् निद्रा ले चाहे न ले- ऐसा जिसका निद्रापर अधिकार है, उसका नाम 'गुडाकेश' है। अर्जुनके केश घुँघराले थे और उनका निद्रापर आधिपत्य था; अतः उनको 'गुडाकेश' कहा गया है।


'एवमुक्तः'- जो निद्रा-आलस्यके सुखका गुलाम नहीं होता और जो विषय-भोगोंका दास नहीं होता, केवल भगवान् का ही दास (भक्त) होता है, उस भक्तकी बात भगवान् सुनते हैं; केवल सुनते ही नहीं, उसकी आज्ञाका पालन भी करते हैं। इसलिये अपने सखा भक्त अर्जुनके द्वारा आज्ञा देनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुनका रथ खड़ा कर दिया।


'हृषीकेशः' इन्द्रियोंका नाम 'हृषीक' है। जो इन्द्रियोंके ईश अर्थात् स्वामी हैं, उनको हृषीकेश कहते हैं। पहले इक्कीसवें श्लोकमें और यहाँ 'हृषीकेश' कहनेका तात्पर्य है कि जो मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि सबके प्रेरक हैं, सबको आज्ञा देनेवाले हैं, वे ही अन्तर्यामी भगवान् यहाँ अर्जुनकी आज्ञाका पालन करनेवाले बन गये हैं! यह उनकी अर्जुनपर कितनी अधिक कृपा है!


'सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्'- दोनों सेनाओंके बीचमें जहाँ खाली जगह थी, वहाँ भगवान् ने अर्जुनके श्रेष्ठ रथको खड़ा कर दिया।"

"(श्लोक-२५) 

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ।।


भीष्मद्रोणप्रमुखतः = पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके सामने, च = तथा, सर्वेषाम् = सम्पूर्ण, महीक्षिताम् = राजाओंके सामने, इति = इस प्रकार, उवाच कहा कि, पार्थ 'हे पार्थ!, एतान् = इन, समवेतान् = इकट्ठे हुए, कुरून् = कुरुवंशियोंको, पश्य = देख ।


भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्'- उस रथको भी भगवान् ने विलक्षण चतुराईसे ऐसी जगह खड़ा किया, जहाँसे अर्जुनको कौटुम्बिक सम्बन्धवाले पितामह भीष्म, विद्याके सम्बन्धवाले आचार्य द्रोण एवं कौरवसेनाके मुख्य मुख्य राजालोग सामने दिखायी दे सकें।


'उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति' - 'कुरु' पदमें धृतराष्ट्रके पुत्र और पाण्डुके पुत्र- ये दोनों आ जाते हैं; क्योंकि ये दोनों ही कुरुवंशी हैं। युद्धके लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियोंको देख - ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियोंको देखकर अर्जुनके भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि हम सब एक ही तो हैं! इस पक्षके हों, चाहे उस पक्षके हों; भले हों, चाहे बुरे हों; सदाचारी हों, चाहे दुराचारी हों; पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी। इस कारण अर्जुनमें छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत् हो जाय और मोह जाग्रत् होनेसे अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुनको निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवोंके कल्याणके लिये गीताका महान् उपदेश दिया जा सके-इसी भावसे भगवान् ने यहाँ 'पश्यैतान् समवेतान् कुरून्' कहा है। नहीं तो भगवान् 'पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान् समानिति'- ऐसा भी कह सकते थे; परन्तु ऐसा कहनेसे अर्जुनके भीतर युद्ध करनेका जोश आता; जिससे गीताके प्राकट्यका अवसर ही नहीं आता ! और अर्जुनके भीतरका प्रसुप्त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता, जिसको दूर करना भगवान् अपनी जिम्मेवारी मानते हैं। जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकानेकी चेष्टा करते हैं और जब वह पक जाता है, तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं; ऐसे ही भगवान् भक्तके भीतर छिपे हुए मोहको पहले जाग्रत् करके फिर उसको मिटाते हैं। यहाँ भी भगवान् अर्जुनके भीतर छिपे हुए मोहको 'कुरून् पश्य' कहकर जाग्रत् कर रहे हैं, जिसको आगे उपदेश देकर नष्ट कर देंगे।


अर्जुनने कहा था कि 'इनको मैं देख लूँ'- 'निरीक्षे' (१। २२) 'अवेक्षे' (१। २३); अतः यहाँ भगवान् को 'पश्य' (तू देख ले) - ऐसा कहनेकी जरूरत ही नहीं थी। भगवान् को तो केवल रथ खड़ा कर देना चाहिये था। परन्तु भगवान् ने रथ खड़ा करके अर्जुनके मोहको जाग्रत् करनेके लिये ही 'कुरून् पश्य' (इन कुरुवंशियोंको देख) - ऐसा कहा है।


कौटुम्बिक स्नेह और भगवत्प्रेम- इन दोनोंमें बहुत अन्तर है। कुटुम्बमें ममतायुक्त स्नेह हो जाता है तो कुटुम्बके अवगुणोंकी तरफ खयाल जाता ही नहीं; किंतु 'ये मेरे हैं'- ऐसा भाव रहता है। ऐसे ही भगवान् का भक्तमें विशेष स्नेह हो जाता है तो भक्तके अवगुणोंकी तरफ भगवान् का खयाल जाता ही नहीं; किन्तु 'यह मेरा ही है' - ऐसा ही भाव रहता है। कौटुम्बिक स्नेहमें क्रिया तथा पदार्थ (शरीरादि) की और भगवत्प्रेममें भावकी मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेहमें मूढ़ता (मोह) की और भगवत्प्रेममें आत्मीयताकी मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेहमें अँधेरा और भगवत्प्रेममें प्रकाश रहता है। कौटुम्बिक स्नेहमें मनुष्य कर्तव्यच्युत हो जाता है और भगवत्प्रेममें तल्लीनताके कारण कर्तव्य पालनमें विस्मृति तो हो सकती है, पर भक्त कभी कर्तव्यच्युत नहीं होता। कौटुम्बिक स्नेहमें कुटुम्बियोंकी और भगवत्प्रेममें भगवान् की प्रधानता होती है।


सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें भगवान् ने अर्जुनसे कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहा। उसके बाद क्या हुआ- इसका वर्णन संजय आगेके श्लोकोंमें करते हैं।"


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