ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 21 से 22 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge




श्री हरि


"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""


भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 21 से 22 


"""(श्लोक-२१)


हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।


अर्जुन उवाच


सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥


हृषीकेशम् अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णसे, इदम् = यह, वाक्यम् = वचन, आह = बोले । अच्युत = हे अच्युत!, उभयोः दोनों, सेनयोः = सेनाओंके, मध्ये = मध्यमें, मे = मेरे, रथम् रथको (आप तबतक), स्थापय = खड़ा कीजिये, 


'हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते'- पाण्डव-सेनाको देखकर दुर्योधन तो गुरु द्रोणाचार्यके पास जाकर चालाकीसे भरे हुए


वचन बोलता है; परन्तु अर्जुन कौरव-सेनाको देखकर जो जगद्गुरु हैं, अन्तर्यामी हैं, मन-बुद्धि आदिके प्रेरक हैं- ऐसे भगवान् श्रीकृष्णसे शूरवीरता, उत्साह और अपने कर्तव्यसे भरे हुए (आगे कहे जानेवाले) वचन बोलते हैं।


अर्जुन बोले- व्याख्या-'अच्युत सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय'- दोनों सेनाएँ जहाँ युद्ध करनेके लिये एक-दूसरेके सामने खड़ी थीं, वहाँ उन दोनों सेनाओंमें इतनी दूरी थी कि एक सेना दूसरी सेनापर बाण आदि मार सके। उन दोनों सेनाओं का मध्यभाग दो तरफसे मध्य था- (१) सेनाएँ जितनी चौड़ी खड़ी थीं, उस चौड़ाईका मध्यभाग और (२) दोनों सेनाओंका मध्यभाग, जहाँसे कौरव-सेना जितनी दूरीपर खड़ी थी, उतनी ही दूरीपर पाण्डव-सेना खड़ी थी। ऐसे मध्यभागमें रथ खड़ा करनेके लिये अर्जुन भगवान् से कहते हैं, जिससे दोनों सेनाओंको आसानीसे देखा जा सके। 


'सेनयोरुभयोर्मध्ये' पद गीतामें तीन बार आया है- यहाँ (१। २१ में), इसी अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें और दूसरे अध्यायके दसवें श्लोकमें। तीन बार आनेका तात्पर्य है कि पहले अर्जुन शूरवीरताके साथ अपने रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा करनेकी आज्ञा देते हैं (पहले अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक), फिर भगवान् दोनों सेनाओंके बीचमें रथको खड़ा करके  कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहते हैं (पहले अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक) और अन्तमें दोनों सेनाओंके बीचमें ही विषादमग्न अर्जुनको गीताका उपदेश देते हैं (दूसरे अध्यायका दसवाँ श्लोक)। इस प्रकार पहले अर्जुनमें शूरवीरता थी, बीचमें कुटुम्बियों को देखने से मोह के कारण उनकी युद्धसे उपरति हो गयी और अन्तमें उनको भगवान् से गीताका महान् उपदेश प्राप्त हुआ, जिससे उनका मोह दूर हो गया। इससे यह भाव निकलता है कि मनुष्य जहाँ-कहीं और जिस-किसी परिस्थितिमें स्थित है, वहीं रहकर वह प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करके निष्काम हो सकता है और वहीं उसको परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। कारण कि परमात्मा सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें सदा एकरूपसे रहते हैं।""


""

(श्लोक-२२)


यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।


कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ।।


यावत् = जबतक, अहम् = मैं (युद्धक्षेत्रमें), अवस्थितान् = खड़े हुए, एतान् इन, योद्धुकामान् = युद्धकी इच्छावालोंको, निरीक्षे देख न लूँ कि, अस्मिन् = इस, रणसमुद्यमे = युद्धरूप उद्योगमें, मया मुझे, कैः = किन-किनके, सह = साथ, योद्धव्यम् = युद्ध करना योग्य है। 


""""यावदेतान्निरी क्षेऽहं.......... रणसमुद्यमे'- दोनों सेनाओंके बीचमें रथ कबतक खड़ा करें ? इसपर अर्जुन कहते हैं कि युद्धकी इच्छाको लेकर कौरव-सेनामें आये हुए सेनासहित जितने भी राजालोग खड़े हैं, उन सबको जबतक मैं देख न लूँ, तबतक आप रथको वहीं खड़ा रखिये। इस युद्धके उद्योगमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना है? उनमें कौन मेरे समान बलवाले हैं? कौन मेरेसे कम बलवाले हैं? और कौन मेरेसे अधिक बलवाले हैं ? उन सबको मैं जरा देख लूँ।


यहाँ 'योद्धुकामान्' पदसे अर्जुन कह रहे हैं कि हमने तो सन्धिकी बात ही सोची थी, पर उन्होंने सन्धिकी बात स्वीकार नहीं की; क्योंकि उनके मनमें युद्ध करनेकी ज्यादा इच्छा है। अतः उनको मैं देखूँ कि कितने बलको लेकर वे युद्ध करनेकी इच्छा रखते हैं।"""""""


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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण || 

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