ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 17 से 19 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge



श्री हरि


"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""


भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 17 से 19 


"""(श्लोक-१७)


काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः । धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ।।


(श्लोक-१८)


द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते । सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक् पृथक् ॥ 


पृथिवीपते = हे राजन्!, परमेष्वासः श्रेष्ठ धनुषवाले, काश्यः = = काशिराज, च = और, महारथः = महारथी, शिखण्डी शिखण्डी, च = तथा, धृष्टद्युम्नः धृष्टद्युम्न, च = एवं, विराटः = राजा विराट, च और, अपराजितः अजेय, सात्यकिः = और, द्रौपदेयाः = द्रौपदीके सात्यकि, द्रुपदः = राजा द्रुपद, च पाँचों पुत्र, च = तथा, महाबाहुः लम्बी-लम्बी भुजाओंवाले, सौभद्रः = सुभद्रापुत्र अभिमन्यु (इन सभीने), सर्वशः = सब ओरसे, पृथक्, पृथक् अलग-अलग (अपने-अपने), शङ्खान् =शंख, दध्मुः = बजाये। 


व्याख्या- 'काश्यश्च परमेष्वासः.....शङ्खान् दध्मुः पृथक्


पृथक्'- महारथी शिखण्डी बहुत शूरवीर था। यह पहले जन्ममें स्त्री (काशिराजकी कन्या अम्बा) था और इस जन्ममें भी राजा द्रुपदको पुत्रीरूपसे प्राप्त हुआ था। आगे चलकर यही शिखण्डी स्थूणाकर्ण नामक यक्षसे पुरुषत्व प्राप्त करके पुरुष बना। भीष्मजी इन सब बातोंको जानते थे और शिखण्डीको स्त्री ही समझते थे। इस कारण वे इसपर बाण नहीं चलाते थे। अर्जुनने युद्धके समय इसीको आगे करके भीष्मजीपर बाण चलाये और उनको रथसे नीचे गिरा दिया।


अर्जुनका पुत्र अभिमन्यु बहुत शूरवीर था। युद्धके समय इसने द्रोणनिर्मित चक्रव्यूहमें घुसकर अपने पराक्रमसे बहुत-से वीरोंका संहार किया। अन्तमें कौरव सेनाके छः महारथियोंने इसको अन्यायपूर्वक घेरकर इसपर शस्त्र अस्त्र चलाये। दुःशासनपुत्रके द्वारा सिरपर गदाका प्रहार होनेसे इसकी मृत्यु हो गयी।


संजयने शंखवादनके वर्णनमें कौरव-सेनाके शूरवीरोंमेंसे केवल भीष्मजीका ही नाम लिया और पाण्डव-सेनाके शूरवीरोंमेंसे भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीम आदि अठारह वीरोंके नाम लिये। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि संजयके मनमें अधर्मके पक्ष (कौरवसेना) का आदर नहीं है। इसलिये वे अधर्मके पक्षका अधिक वर्णन करना उचित नहीं समझते। परन्तु उनके मनमें धर्मके पक्ष (पाण्डवसेना) का आदर होनेसे और भगवान् श्रीकृष्ण तथा पाण्डवोंके प्रति आदरभाव होनेसे वे उनके पक्षका ही अधिक वर्णन करना उचित समझते हैं और उनके पक्षका वर्णन करनेमें ही उनको आनन्द आ रहा है। 


सम्बन्ध-पाण्डव-सेनाके शंखवादनका कौरवसेनापर क्या असर हुआ- इसको आगेके श्लोकमें कहते हैं।


(श्लोक-१९)


स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् । नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥


= च = और, सः = (पाण्डव-सेनाके शंखोंके) उस, तुमुलः भयंकर, घोषः = शब्दने, नभः आकाश, च = और, पृथिवीम् = पृथ्वीको, एव = भी, व्यनुनादयन् = गुँजाते हुए, धार्तराष्ट्राणाम् = अन्यायपूर्वक राज्य हड़पनेवाले दुर्योधन आदिके, हृदयानि = हृदय, व्यदारयत् = विदीर्ण कर दिये।


व्याख्यास घोषो धार्तराष्ट्राण..........तुमुलो व्यनुनादयन् ' - पाण्डव-सेनाकी वह शंखध्वनि इतनी विशाल, गहरी, ऊँची और भयंकर हुई कि उस (ध्वनि-प्रतिध्वनि) से पृथ्वी और आकाशके बीचका भाग गूंज उठा। उस शब्दसे अन्यायपूर्वक राज्यको हड़पनेवालोंके और उनकी सहायताके लिये (उनके पक्षमें) खड़े हुए राजाओंके हृदय विदीर्ण हो गये। तात्पर्य है कि हृदयको किसी अस्त्र-शस्त्रसे विदीर्ण करनेसे जैसी पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा उनके हृदयमें शंखध्वनिसे हो गयी। उस शंखध्वनिने कौरव-सेनाके हृदयमें युद्धका जो उत्साह था, बल था, उसको कमजोर बना दिया, जिससे उनके हृदयमें पाण्डव-सेनाका भय उत्पन्न हो गया।


संजय ये बातें धृतराष्ट्रको सुना रहे हैं। धृतराष्ट्रके सामने ही संजयका 'धृतराष्ट्रके पुत्रों अथवा सम्बन्धियोंके हृदय विदीर्ण कर दिये' ऐसा कहना सभ्यतापूर्ण और युक्तिसंगत नहीं मालूम देता। इसलिये संजयको 'धार्तराष्ट्राणाम्' न कहकर 'तावकीनानाम्' (आपके पुत्रों अथवा सम्बन्धियोंके - ऐसा) कहना चाहिये था; क्योंकि ऐसा कहना ही सभ्यता है। इस दृष्टिसे यहाँ 'धार्तराष्ट्राणाम्' पदका अर्थ 'जिन्होंने अन्यायपूर्वक राज्यको धारण किया- ऐसा लेना ही युक्तिसंगत तथा सभ्यतापूर्ण मालूम देता है।


१' अन्यायेन धृतं राष्ट्रं यैस्ते धृतराष्ट्राः' ऐसा बहुब्रीहि समास करनेके बाद 'धृतराष्ट्रा एव' इस विग्रहमें स्वार्थमें तद्धितका 'अण्' प्रत्यय किया गया, जिससे 'धार्तराष्ट्राः' यह रूप बन गया। यहाँ षष्ठी विभक्तिके प्रयोगकी आवश्यकता होनेसे षष्ठीमें 'धार्तराष्ट्राणाम्' ऐसा प्रयोग किया गया है।


अन्यायका पक्ष लेनेसे ही उनके हृदय विदीर्ण हो गये- इस दृष्टिसे भी यह अर्थ लेना ही युक्तिसंगत मालूम देता है।


यहाँ शंका होती है कि कौरवोंकी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाके शंख आदि बाजे बजे तो उनके शब्दका पाण्डवसेना-पर कुछ भी असर नहीं हुआ, पर पाण्डवोंकी सात अक्षौहिणी सेनाके शंख बजे तो उनके शब्दसे कौरव-सेनाके हृदय विदीर्ण क्यों हो गये ? इसका समाधान यह है कि जिनके हृदयमें अधर्म, पाप, अन्याय नहीं है अर्थात् जो धर्मपूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करते हैं, उनका हृदय मजबूत होता है, उनके हृदयमें भय नहीं होता।


२-दुर्योधनके पक्षमें ग्यारह अक्षौहिणी सेनाका होना सम्भव ही नहीं था; परन्तु जब पाण्डव वनवासमें चले गये, तब दुर्योधनने धर्मराज युधिष्ठिरकी राज्य करनेकी नीतिको अपनाया। जैसे युधिष्ठिरजी अपना कर्तव्य समझकर प्रजाको सुख देनेके लिये धर्म और न्यायपूर्वक राज्य करते थे, ऐसे ही दुर्योधनने भी अपना राज्य स्थापित करनेके लिये, अपना प्रभाव जमानेके लिये प्रजाके साथ युधिष्ठिरके समान बर्ताव किया। तेरह वर्षतक प्रजाके साथ अच्छा बर्ताव करनेसे युद्धके समय बहुत सेना जुट गयी, जो कि पहले पाण्डवोंके पक्षमें थी और पाण्डवोंको चाहती थी। इस प्रकार नौ अक्षौहिणी सेना तो प्रजाके साथ अच्छे बर्तावके प्रभावसे दुर्योधनके पक्षमें हो गयी और भगवान् श्रीकृष्णकी एक अक्षौहिणी नारायणी सेनाको तथा मद्रराज शल्यकी एक अक्षौहिणी सेनाको दुर्योधनने चालाकीसे अपने पक्षमें कर लिया, जो कि पाण्डवोंके पक्षमें थी। अतः दुर्योधनके पक्षमें ग्यारह अक्षौहिणी सेना और पाण्डवोंके पक्षमें सात अक्षौहिणी सेना थी।


न्यायका पक्ष होनेसे उनमें उत्साह होता है, शूरवीरता होती है। पाण्डवोंने वनवासके पहले भी न्याय और धर्मपूर्वक राज्य किया था और वनवासके बाद भी नियमके अनुसार कौरवोंसे न्यायपूर्वक राज्य माँगा था। अतः उनके हृदयमें भय नहीं था, प्रत्युत उत्साह था, शूरवीरता थी। तात्पर्य है कि पाण्डवोंका पक्ष धर्मका था। इस कारण कौरवोंकी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाके बाजोंके शब्दका पाण्डव- सेनापर कोई असर नहीं हुआ। परन्तु जो अधर्म, पाप, अन्याय आदि करते हैं, उनके हृदय स्वाभाविक ही कमजोर होते हैं। उनके हृदयमें निर्भयता, निःशंकता नहीं रहती। उनका खुदका किया पाप, अन्याय ही उनके हृदयको निर्बल बना देता है। अधर्म अधर्मीको खा जाता है। दुर्योधन आदिने पाण्डवोंको अन्यायपूर्वक मारनेका बहुत प्रयास किया था। उन्होंने छल-कपटसे अन्यायपूर्वक पाण्डवोंका राज्य छीना था और उनको बहुत कष्ट दिये थे। इस कारण उनके हृदय कमजोर, निर्बल हो चुके थे। तात्पर्य है कि कौरवोंका पक्ष अधर्मका था। इसलिये पाण्डवोंकी सात अक्षौहिणी सेनाकी शंख-ध्वनिसे उनके हृदय विदीर्ण हो गये, उनमें बड़े जोरकी पीड़ा हो गयी।


इस प्रसंगसे साधकको सावधान हो जाना चाहिये कि उसके द्वारा अपने शरीर, वाणी, मनसे कभी भी कोई अन्याय और अधर्मका आचरण न हो। अन्याय और अधर्मयुक्त आचरणसे मनुष्यका हृदय कमजोर, निर्बल हो जाता है। उसके हृदयमें भय पैदा हो जाता है। उदाहरणार्थ, लंकाधिपति रावणसे त्रिलोकी डरती थी। वही रावण जब सीताजीका हरण करने जाता है, तब भयभीत होकर इधर-उधर देखता है।


३-सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा ।। जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नींद दिन अन्न न खाहीं ।।


इसलिये साधकको चाहिये कि वह अन्याय-अधर्मयुक्त आचरण कभी न करे।


सम्बन्ध-धृतराष्ट्रने पहले श्लोकमें अपने और पाण्डुके पुत्रोंके विषयमें प्रश्न किया था। उसका उत्तर संजयने दूसरे श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक दे दिया। अब संजय भगवद्गीताके प्राकट्यका प्रसंग आगेके श्लोकसे आरम्भ करते हैं। """


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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण || 

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