ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 14 से 16 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 14 से 16
"(श्लोक-१४) ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ । माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥
ततः = उसके बाद, श्वेतैः सफेद, हयैः घोड़ोंसे, युक्ते = युक्त, महति = महान्, स्यन्दने = रथपर, स्थितौ = बैठे हुए, माधवः = लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण, च = और, अर्जुनने, एव = भी, दिव्यौ दिव्य, शङ्खौ बड़े जोरसे बजाया। पाण्डवः = पाण्डुपुत्र शंखोंको, प्रदध्मतुः =
व्याख्या 'ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते'- चित्ररथ गन्धर्वने अर्जुनको सौ दिव्य घोड़े दिये थे। इन घोड़ोंमें यह विशेषता थी कि इनमेंसे युद्धमें कितने ही घोड़े क्यों न मारे जायँ, पर ये संख्यामें सौ-के-सौ ही बने रहते थे, कम नहीं होते थे। ये पृथ्वी, स्वर्ग आदि सभी स्थानोंमें जा सकते थे। इन्हीं सौ घोड़ोंमेंसे सुन्दर और सुशिक्षित चार सफेद घोड़े अर्जुनके रथमें जुते हुए थे।
'महति स्यन्दने स्थितौ'- यज्ञोंमें आहुतिरूपसे दिये गये घीको खाते-खाते अग्निको अजीर्ण हो गया था। इसीलिये अग्निदेव खाण्डववनकी विलक्षण-विलक्षण जड़ी-बूटियाँ खाकर (जलाकर) अपना अजीर्ण दूर करना चाहते थे। परन्तु देवताओंके द्वारा खाण्डववनकी रक्षा की जानेके कारण अग्निदेव अपने कार्यमें सफल नहीं हो पाते थे। वे जब-जब खाण्डववनको जलाते, तब-तब इन्द्र वर्षा करके उसको (अग्निको) बुझा देते। अन्तमें अर्जुनकी सहायतासे अग्निने उस पूरे वनको जलाकर अपना अजीर्ण दूर किया और प्रसन्न होकर अर्जुनको यह बहुत बड़ा रथ दिया। नौ बैलगाड़ियोंमें जितने अस्त्र-शस्त्र आ सकते हैं, उतने अस्त्र-शस्त्र इस रथमें पड़े रहते थे। यह सोनेसे मढ़ा हुआ और तेजोमय था। इसके पहिये बड़े ही दृढ़ एवं विशाल थे। इसकी ध्वजा बिजलीके समान चमकती थी। यह ध्वजा एक योजन (चार कोस) तक फहराया करती थी। इतनी लम्बी होनेपर भी इसमें न तो बोझ था, न यह कहीं रुकती थी और न कहीं वृक्ष आदिमें अटकती ही थी। इस ध्वजापर हनुमान् जी विराजमान थे।
'स्थितौ' कहनेका तात्पर्य है कि उस सुन्दर और तेजोमय रथपर साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण और उनके प्यारे भक्त अर्जुनके विराजमान होनेसे उस रथकी शोभा और तेज बहुत ज्यादा बढ़ गया था।
'माधवः पाण्डवश्चैव' - 'मा' नाम लक्ष्मीका है और 'धव' नाम पतिका है। अतः 'माधव' नाम लक्ष्मीपतिका है। यहाँ 'पाण्डव' नाम अर्जुनका है; क्योंकि अर्जुन सभी पाण्डवोंमें मुख्य हैं - 'पाण्डवानां धनञ्जयः' (गीता १०। ३७)।
अर्जुन 'नर' के और श्रीकृष्ण 'नारायण' के अवतार थे। महाभारतके प्रत्येक पर्वके आरम्भमें नर (अर्जुन) और नारायण (भगवान् श्रीकृष्ण) को नमस्कार किया गया है- 'नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।' इस दृष्टिसे पाण्डव-सेनामें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन- ये दोनों मुख्य थे। संजयने भी गीताके अन्तमें कहा है कि 'जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन रहेंगे, वहींपर श्री, विजय, विभूति और अटल नीति रहेगी' (१८।७८)।
'दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ' - भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके हाथोंमें जो शंख थे, वे तेजोमय और अलौकिक थे। उन शंखोंको उन्होंने बड़े जोरसे बजाया।
यहाँ शंका हो सकती है कि कौरवपक्षमें मुख्य सेनापति पितामह भीष्म हैं, इसलिये उनका सबसे पहले शंख बजाना ठीक ही है; परन्तु पाण्डव-सेनामें मुख्य सेनापति धृष्टद्युम्नके रहते हुए ही सारथि बने हुए भगवान् श्रीकृष्णने सबसे पहले शंख क्यों बजाया ? इसका समाधान है कि भगवान् सारथि बनें चाहे महारथी बनें, उनकी मुख्यता कभी मिट ही नहीं सकती। वे जिस किसी भी पदपर रहें, सदा सबसे बड़े ही बने रहते हैं। कारण कि वे अच्युत हैं, कभी च्युत होते ही नहीं। पाण्डव-सेनामें भगवान् श्रीकृष्ण ही मुख्य थे और वे ही सबका संचालन करते थे। जब वे बाल्यावस्थामें थे, उस समय भी नन्द, उपनन्द आदि उनकी बात मानते थे। तभी तो उन्होंने बालक श्रीकृष्णके कहनेसे परम्परासे चली आयी इन्द्र-पूजाको छोड़कर गोवर्धनकी पूजा करनी शुरू कर दी। तात्पर्य है कि भगवान् जिस किसी अवस्थामें, जिस किसी स्थानपर और जहाँ कहीं भी रहते हैं, वहाँ वे मुख्य ही रहते हैं। इसीलिये भगवान् ने पाण्डव- सेनामें सबसे पहले शंख बजाया।
जो स्वयं छोटा होता है, वही ऊँचे स्थानपर नियुक्त होनेसे बड़ा माना जाता है। अतः जो ऊँचे स्थानके कारण अपनेको बड़ा मानता है, वह स्वयं वास्तवमें छोटा ही होता है। परंतु जो स्वयं बड़ा होता है, वह जहाँ भी रहता है, उसके कारण वह स्थान भी बड़ा माना जाता है। जैसे भगवान् यहाँ सारथि बने हैं, तो उनके कारण वह सारथिका स्थान (पद) भी ऊँचा हो गया सम्बन्ध - अब संजय आगेके चार श्लोकोंमें पूर्वश्लोकका खुलासा करते हुए दूसरोंके शंखवादनका वर्णन करते हैं।
(श्लोक-१५)
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः । पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः ॥
= हृषीकेशः अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने, पाञ्चजन्यम् = पांचजन्य नामक (तथा), धनञ्जयः धनंजय अर्जुनने, देवदत्तम् = देवदत्त नामक (शंख बजाया और), भीमकर्मा भयानक कर्म करनेवाले, वृकोदरः = वृकोदर भीमने, पौण्ड्रम् = पौण्ड्र नामक, महाशङ्खम् = महाशंख, दध्मौ = बजाया।
व्याख्या- 'पाञ्चजन्यं हृषीकेशः' - सबके अन्तर्यामी अर्थात् सबके भीतरकी बात जाननेवाले साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंके पक्षमें खड़े होकर 'पांचजन्य' नामक शंख बजाया।भगवान् ने पंचजन नामक शंखरूपधारी दैत्यको मारकर उसको शंखरूपसे ग्रहण किया था, इसलिये इस शंखका नाम 'पांचजन्य' हो गया।
'देवदत्तं धनञ्जयः'- राजसूय यज्ञके समय अर्जुनने बहुत-से राजाओंको जीतकर बहुत धन इकट्ठा किया था। इस कारण अर्जुनका नाम 'धनंजय' पड़ गया*।
* सर्वाञ्जनपदाञ्जित्वा वित्तमादाय केवलम् । मध्ये धनस्य तिष्ठामि तेनाहुर्मा धनञ्जयम् ।।
(महाभारत, विराट० ४४।१३)
निवातकवचादि दैत्योंके साथ युद्ध करते समय इन्द्रने अर्जुनको 'देवदत्त' नामक शंख दिया था। इस शंखकी ध्वनि बड़े जोरसे होती थी, जिससे शत्रुओंकी सेना घबरा जाती थी। इस शंखको अर्जुनने बजाया।
'पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः'- हिडिम्बासुर, बकासुर, जटासुर आदि असुरों तथा कीचक, जरासन्ध आदि बलवान् वीरोंको मारनेके कारण भीमसेनका नाम 'भीमकर्मा' पड़ गया। उनके पेटमें जठराग्निके सिवाय 'वृक' नामकी एक विशेष अग्नि थी, जिससे बहुत अधिक भोजन पचता था। इस कारण उनका नाम 'वृकोदर' पड़ गया। ऐसे भीमकर्मा वृकोदर भीमसेनने बहुत बड़े आकारवाला 'पौण्ड्र' नामक शंख बजाया।
श्लोक-१६)
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः । नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ।।
कुन्तीपुत्रः = कुन्तीपुत्र, राजा राजा, युधिष्ठिरः = युधिष्ठिरने, अनन्तविजयम् = अनन्तविजय नामक (शंख बजाया तथा), नकुलः = नकुल, च = और, सहदेवः = सहदेवने सुघोषमणिपुष्पकौ = सुघोष और मणिपुष्पक नामक (शंख बजाये)।
राज.............सुघोषमणि- व्याख्या- 'अनन्तविजयं पुष्पकौ'- अर्जुन, भीम और युधिष्ठिर- ये तीनों कुन्तीके पुत्र हैं तथा नकुल और सहदेव- ये दोनों माद्रीके पुत्र हैं, यह विभाग दिखानेके लिये ही यहाँ युधिष्ठिरके लिये 'कुन्तीपुत्र' विशेषण दिया गया है।
युधिष्ठिरको 'राजा' कहनेका तात्पर्य है कि युधिष्ठिरजी वनवासके पहले अपने आधे राज्य (इन्द्रप्रस्थ) के राजा थे, और नियमके अनुसार बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवासके बाद वे राजा होने चाहिये थे। 'राजा' विशेषण देकर संजय यह भी संकेतकरना चाहते हैं कि आगे चलकर धर्मराज युधिष्ठिर ही सम्पूर्णपृथ्वीमण्डलके राजा होंगे।"
ऐसी ही और वीडियो के लिए हमसे जुड़े रहिए, और आपका आशीर्वाद और सहयोग बनाए रखे। अगर हमारा प्रयास आपको पसंद आया तो चैनल को सब्सक्राइब करें और अपने स्नेहीजनों को भी शेयर करें।
Comments
Post a Comment